Rajasthan Jan Jagran ( राजस्थान में जन जागरण )

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राजस्थान में जन जागरण

Rajasthan Jan Jagran ( राजस्थान में जन जागरण )

भील आन्दोलन ( Bhil Movement )

आंदोलन के तीन चरण-

प्रथम चरण – 1883- 1920

नेतृत्व – गुरु गोविंद गिरी

जन्म- बांसिया गांव (डूंगरपुर )

संज्ञा- आदिवासियों के दयानंद सरस्वती

भगत आंदोलन – 1883

नेतृत्व – गोविन्द गिरी

सहयोगी- सुरजी भगत , सुरमा भगत, पुंजा धीर जी

Rajasthan Jan Jagran ( राजस्थान में जन जागरण )

वांगड़ क्षेत्र की भील आदिवासियों जनता में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति तथा राष्ट्रीय आंदोलन हेतु प्रेरित करना ।  8 नवंबर 1913 में मानगढ़ धाम (बांसवाड़ा) में सम्प सभा के सामूहिक सम्मेलन पर मेजर बेली के नेतृत्व में मेवाड़ भील कोर की बर्बर गोलीबारी में 1500 भीलो की हत्या । संज्ञा –

राजस्थान का जलियावाला बाग़ हत्याकांड

वांगड़ क्षेत्र का जलियावाला बाग़ हत्याकांड

राजस्थान का स्थिति एवं विस्तार | Rajasthan Ki Sthiti evam Vistaar

गुरु गोविंद गिरी को गिरफ्तार कर अहमदाबाद जेल में बंदी बनाया गया ।

द्वितीय चरण – 1921- 30

नेतृत्व –  मोतीलाल तेजावत

जन्म – कोल्यारी गाँव (उदयपुर )

संज्ञा –

मेवाड़ के गांधी

आदिवासियो के मसीहा

बावजी

एकी या भोमट आंदोलन – 1921

भोमट क्षेत्र के आदिवासियों के सामाजिक शैक्षिक एंव राजनैतिक जाग्रति पैदा कर राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ना ।

1920 में तेजावत द्वारा वनवासी सेवा संघ की स्थापना

नारा – ना हाकिम न सूरी

आंदोलन की शुरुआत – वैशाख पूर्णिमा के दिन , मातृकुंडिया

नीमड़ा हत्याकांड – 1922 पालचितारिया गाँव

मेजर h.g. suttan के नेतृत्व में मेवाड़ भील कोर की बर्बर गोलीबारी में 1200 भीलो की हत्या

संज्ञा – द्वितीय जलियावाला बाग़ हत्याकांड

तृतीय चरण –

नेतृत्व –  भोगीलाल पांड्या

जन्म- सीमलवाड़ा (डूंगरपुर)

संज्ञा – वांगड़ के गांधी

भोगीलाल पांड्या द्वारा स्थापित संस्थाये-

आदिवासी, भीलो, हरिजनों एंव पिछड़ो में शिक्षा के प्रचार तथा समाज सुधार हेतु 1935 में वांगड़ सेवा मबदिर की स्थापना ।

1937 में हरिजन सेवा समिति की स्थापना

1938 में भील सेवा संघ

1944 में डूंगरपुर प्रजामंडल संघ

भील विद्रोह ( Bhil Rebellion )

भील विद्रोह, अंग्रेजी शासन के परिणाम स्वरुप आदिवासी क्षेत्रों में बाह्य तत्वों जैसे राजस्व कर्मचारी, सूदखोर, ठेकेदार, भूमि हथियाने वाले, व्यापारी, दुकानदार, इत्यादि के प्रवेश ने भीलों में अनेक परेशानियां उत्पन्न की। इन नए तत्वों के प्रवेश ने भील क्षेत्रों में सामाजिक तनाव उत्पन्न कर दिया था।

राजस्व का भाग प्रतिवर्ष की दर से अंग्रेजों को दिया जाना था एवं तत्पश्चात यह राशि कुल राजस्व का 3/8 भाग दिया जाना तय किया गया था।भील या तो कोई राजस्व नहीं देते थे, अथवा नाम मात्र का दे रहे थे, जब उन पर नए कर थोप दिए गए थे इस प्रकार यह 1818 में भील विद्रोह का एक महत्वपूर्ण कारण बना।

प्रथम भील विद्रोह उदयपुर राज्य में ही आरंभ हुआ था। भील अपनी पाल के समीप ही गांव से “रखवाली”( चौकीदारी कर) नामक कर तथा अपने क्षेत्रों से गुजरने वाले माल व यात्रियों से “बोलाई” (सुरक्षा) नामक कर वसूल करते थे।

जेम्स टॉड ने राज्य की आय व राजस्व में वृद्धि के प्रयासों के अंतर्गत तथा भील पर कठोर नियंत्रण स्थापित करने के ध्येय से भीलो से उनके ये अधिकार छीन लिए थे। यह भील विद्रोह का तात्कालिक कारण बना। इस प्रकार उदयपुर राज्य में भील विद्रोह की ज्वाला भड़की।

1820 के आरंभ में अंग्रेजी सेना का एक अभियान दल विद्रोही भीलों के दमन हेतु भेजा गया किंतु इसे सफलता नहीं मिली। जनवरी 1823 में ब्रिटिश व राज्य की संयुक्त सेनाओ ने दिसंबर 1823 तक भील विद्रोह को दबाने में सफलता प्राप्त की, किंतु अंग्रेज स्थाई शांति प्राप्त नहीं कर सके।

डूंगरपुर राज्य में स्थित अधिक गंभीर थी। 12 मई 1825 को डूंगरपुर राज्य में लिम्बाराबारु के भीलों ने अंग्रेजों के साथ समझौता किया जो वास्तव में अंग्रेजों द्वारा भीलों पर थोपा गया था। जनवरी 1826 में गरासिया भील मुखिया दौलत सिंह एवं गोविन्द्रा ने अंग्रेजों व उदयपुर राज्य के खिलाफ विद्रोह कर दिया था

उन्होंने प्रतिरोध हेतु एक भील फौज इकट्ठी कर ली थी।, उन्होंने पुलिस थानों पर आक्रमण किए तथा सैकड़ों सिपाहियों को मार दिया था।1828 में लंबी बातचीत के उपरांत दौलत सिंह के आत्मसमर्पण के पश्चात ही यह विद्रोह समाप्त हुआ। सेना द्वारा भीलों का दमन करने की दिशा में पहला कदम 1836 में जोधपुर लीजन नामक सेना का गठन था,

जिसका मुख्यालय अजमेर रखते हुए एक अंग्रेज अधिकारी के कमांड में रखा गया। मार्च, 1842 में जोधपुर लीजन का मुख्यालय सिरोही राज्य में ही बड़गांव से एरिनपुरा स्थानांतरित कर दिया गया था।

गोविंद गिरी का भगत आंदोलन ( Govind Giri Bhagat movement )

भीलों में जागृति की विचारधारा फैलाने वालों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम गुरु गोविंद का है।  इनका जन्म 1858 ईसवी में डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव में एक बंजारे के घर में हुआ था। वह कोटा, बूंदी, अखाड़े के साधु राजगिरी का शिष्य बन गया।

1883 में गोविंद गिरी ने “संप सभा” की स्थापना की तथा मेवाड़, डूंगरपुर, गुजरात, मालवा, आदि क्षेत्रों के भील एवं गरासियों को संगठित करने का प्रयास किया। संप सभा का अर्थ आपसी एकता, भाईचारा, और प्रेम भाव, रखने वाला संगठन होता है।

इस संस्था के 10 नियम थे जिनमें मांस खाने का निषेध, शराब पीने का निषेध, चोरी एवं डकैती करने का निषेध, स्वदेशी का प्रयोग, तथा अन्याय का प्रतिकार आदि सम्मिलित थे। इस सभा के प्रयास से आदिवासी लोगों ने इन बुराइयों को छोड़ने का प्रयास किया। वे अपने आपसी झगड़ों को पंचायत के मध्य ही सुलझाने लगे तथा बच्चों को पढ़ाने का प्रयास करने लगे।

उन्होंने लाल-बाग न देने, बेगार न करने तथा व्यर्थ के कर न देने की भी शपथ ली। गिरि को दयानंद सरस्वती से प्रेरणा मिली । 1881 ईसवी में जब दयानंद सरस्वती उदयपुर गए तो गुरु गोविंद उन से मिले तथा उन से प्रेरणा पाकर गुरु ने आदिवासी सुधार एवं स्वदेशी आंदोलन शुरु किया, एवं कुरीतियों को दूर करने के लिए “भगत आंदोलनएवं स्वदेशी आंदोलन” चलाया।

भीलों को हिंदू धर्म के दायरे में बनाए रखने के लिए “भगत पंथ” की स्थापना की। उन्होंने जनजातियों में व्याप्त बुराइयों एवं कुरीतियों को दूर करने के लिए भरसक प्रयास किए तथा अपने अधिकारों के प्रति भी सजग किया। 1930 ईस्वी में गुजरात स्थित मानगढ़ की पहाड़ी पर आदिवासियों का सम्मेलन संप सभा के अधिवेशन के रूप में आयोजित किया गया। आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को प्रतिवर्ष संप सभा का अधिवेशन होने लगा।

बेडसा गोविंद गिरी की गतिविधियों का केंद्र बन गया पुंजा धीरजी गोविंद गुरु के प्रमुख शिष्य थे।

मानगढ़ का विराट सम्मेलन ( Managadh Virat Sammelan )

गोविंद गिरी ने अक्टूबर 1913 ईस्वी में भीलों को मानगढ़ पहाड़ी पर एकत्र होने के लिए संदेश भेजा । 17 नवंबर 1913 ईस्वी को मेवाड़ भील कोर, वेलेजली राइफल्स व सातवे राजपूत रेजिमेंट के सैनिकों ने मानगढ़ की पहाड़ी को घेर लिया।

इनके नेतृत्व में 1913 ईस्वी में मानगढ़ (बांसवाड़ा) पहाड़ी पर सम्प सभा का विराट सम्मेलन आयोजित हुआ तो सेना द्वारा बरसाई गई गोलियों से 1500 स्त्री-पुरुष घटनास्थल पर ही मारे गए इस घटना को भारत का दूसरा “जलियांवाला बाग हत्याकांड” की संज्ञा दी गई।

गिरि एवं उनकी पत्नी को बंदी बनाया गया जिन्हें 10 वर्ष बाद रिहा किया गया। इस दंपति ने अपने जीवन का शेष गुजरात के कंबोई नामक स्थान पर बिताया

मोतीलाल तेजावत का एकी/भोमट/मातृकुंडिया आंदोलन

उदयपुर (कोल्यारी) में जैन परिवार में जन्मे मेवाड़ के गांधी “मोतीलाल तेजावत” ने अत्याधिक करों बेगार, शोषण, एवं सामंती जुल्मों के विरुद्ध 1921 में मातृकुंडिया(चित्तौड़) में आदिवासियों के लिए “एकी आंदोलन” चलाया। एकता स्थापित करने के लिए इस अभियान को ही ^एकी आंदोलन^ के नाम से अभिहित किया गया।

एकी आंदोलन का मूल उद्देश्य भारी लगान, अन्याय पूर्ण लोगों और बेगार से किसानों को मुक्त करवाना था । मेवाड़ में 19वीं सदी में भील विद्रोह मुख्य रूप से मगरा क्षेत्र में केंद्रित था। जो बीसवीं सदी के प्रारंभ में पहाड़ा आदि क्षेत्रों में फैल गया। इस आंदोलन के साथ- साथ 1921 तक झाडोल, कोलियारी, मादरी एवं मगरा तथा भोमट के भील ने एकी कर अंग्रेजों, मेवाड़ राज्य जागीरदारों की सत्ता की खुली अवहेलना की।

इसी समय मोतीलाल तेजावत ने मेवाड़ के भील आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। जुलाई 1921 में तेजावत ने भीलों का कर बंदी सहित असहयोग आंदोलन आरंभ कर दिया था। इन्होंने भीलों पर होने वाले अत्याचारों से संबंधित 21 मांगे जिन्हें “मेवाड़ पुकार’ (मोतीलाल तेजावत की स्वयं की डायरी) कहा गया।

तेजावत द्वारा छोड़े गए आंदोलन को भारी जनसमर्थन मिला एवं यह भीलों का एक शक्तिशाली आंदोलन बन गया, उनके नेतृत्व में निंमडा में (1921 ईस्वी) एक विशाल आदिवासी सम्मेलन हुआ जिसमें सेना की गोलीबारी से 12 साल मारे गए वह हजारों घायल हो

मीणा जनजाति आन्दोलन ( Meena tribe movement )

जो मीणा खेती करते थे वो जागीदार मीणा कहलाये और जो चोरी डकैती करते वओ चौकीदार मीणा कहलाये।

मीणा दो प्रकार के थे –

जागीदार

चौकीदार।

जयपुर रियासत 1924 में चैकीदार मीणाओं पर पाबंदी के लिये क्रिमिनल ट्राईव एक्ट लाया गया 1930 मे जयपुर रियासत ने इनके लिए जरायम पेशा कानून लाई। इसमें प्रत्येक व्यस्क मीणा(स्त्री-पुरूष) को नजदीकी पुलिस थाने में हाजरी लगानी पड़ती थी।

1930 में मीणा क्षेत्रिय महासभा का गठन प. बन्शीधर शर्मा ने किया और मीणाओं के आन्दोलन इसी संस्था के अनुसार चलाये गये। 1944 में नीम का थाना सीकर में मीणाओं का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया जाता है जिसकी जैन मूनि भगन सागर महाराज द्वारा अध्यक्षता की गयी।

1946 में आधुनिक जयपुर के निर्माता – मिर्जा इस्माईल(जयपुर के प्रधानमंत्री) कानून दादरसी व जिन मीणाओं ने कोई अपराध नहीं किया है उनको थाने में हाजरी से मुक्ति दी।

1949 में ‘वृहद् राजस्थान’ के निर्माण के साथ ही जयपुर रियासत का विलय इसमें हो गया। तब लगातार प्रयास करने पर लगभग 28 वर्षों के लम्बे संघर्ष के उपरांत 1952 में जरायम पेशा अधिनियम अंततः रद्द हो गया।

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