भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध | भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध कब और किसके बिच हुए ? | भारतीय इतिहास के सम्पूर्ण इतिहास | भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध | भारतीय इतिहास के सम्पूर्ण युद्ध | भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण युद्ध | भारतीय इतिहास के सम्पूर्ण युद्ध जो आपको पता नहीं होंगे | भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध कब और किसके बिच हुए ?
भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध परिचय
भारतीय इतिहास में समय-समय पर कई युद्ध हुए हैं। इन युद्धों के द्वारा भारत की राजनीति ने न जाने कितनी ही बार एक अलग ही दिशा प्राप्त की। भारतीय रियासतों में आपस में ही कई इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़े गए। इन देशी रियासतों की आपसी फूट भी इस हद तक बढ़ चुकी थी, कि अंग्रेज़ों ने उसका पूरा लाभ उठाया। राजपूतों, मराठों और मुसलमानों में भी कई सन्धियाँ हुईं। भारत के इतिहास में अधिकांश युद्धों का लक्ष्य सिर्फ़ एक ही था, दिल्ली सल्तनत पर हुकूमत। अंग्रेज़ों ने ही अपनी सूझबूझ और चालाकी व कूटनीति से दिल्ली की हुकूमत प्राप्त की थी। हालाँकि उन्हें भारत में अपने पाँव जमाने के लिए काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा था, फिर भी उन्होंने भारतियों की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए इसे एक लम्बे समय तक ग़ुलाम बनाये रखा।
भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध –
1. पानीपत युद्ध
“अहमदशाह अब्दाली ने 1748 से 1760 ई. के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई जीत कर मुग़ल साम्राज्य का फ़ातिहा पढ़ दिया। उसने दिल्ली पर दख़ल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौक़ा खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फ़तह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फ़ायदा अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।
2. प्लासी का युद्ध
प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को लड़ा गया था। अंग्रेज़ और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेनायें 23 जून, 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर ‘नदिया ज़िले’ में भागीरथी नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक गाँव में आमने-सामने आ गईं। सिराजुद्दौला की सेना में जहाँ एक ओर ‘मीरमदान’, ‘मोहनलाल’ जैसे देशभक्त थे, वहीं दूसरी ओर मीरजाफ़र जैसे कुत्सित विचारों वाले धोखेबाज़ भी थे। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे प्रारम्भ हुआ। मीरजाफ़र एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ निष्क्रिय रहे। इस युद्ध में मीरमदान मारा गया। युद्ध का परिणाम शायद नियति ने पहले से ही तय कर रखा था। रॉबर्ट क्लाइव बिना युद्ध किये ही विजयी रहा। फलस्वरूप मीरजाफ़र को बंगाल का नवाब बनाया गया। के.एम.पणिक्कर के अनुसार, ‘यह एक सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी सेठों तथा मीरजाफ़र ने नवाब को अंग्रेज़ों के हाथों बेच डाला’।
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3. मैसूर युद्ध
1761 ई. में हैदर अली ने मैसूर में हिन्दू शासक के ऊपर नियंत्रण स्थापित कर लिया। निरक्षर होने के बाद भी हैदर अली की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता अद्वितीय थी। उसके फ़्राँसीसियों से अच्छे सम्बन्ध थे। हैदर अली की योग्यता, कूटनीतिक सूझबूझ एवं सैनिक कुशलता से मराठे, निज़ाम एवं अंग्रेज़ ईर्ष्या करते थे। हैदर अली ने अंग्रेज़ों से भी सहयोग माँगा था, परन्तु अंग्रेज़ इसके लिए तैयार नहीं हुए, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाती। भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थीं। अंग्रेज़ों और हैदर अली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान के बीच समय-समय पर युद्ध हुए। 32 वर्षों (1767 से 1799 ई.) के मध्य में ये युद्ध छेड़े गए थे।
4. आंग्ल-मराठा युद्ध
भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और मराठा महासंघ के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि, मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में काफ़ी भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। जहाँ रघुनाथराव ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मित्रता करके पेशवा बनने का सपना देखा, और अंग्रेज़ों के साथ सूरत की सन्धि की, वहीं क़ायर बाजीराव द्वितीय ने बसीन भागकर अंग्रेज़ों के साथ बसीन की सन्धि की और मराठों की स्वतंत्रता को बेच दिया। पहला युद्ध(1775-1782 ई.) रघुनाथराव द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा।
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5. आंग्ल-सिक्ख युद्ध
भारत के इतिहास में दो सिक्ख युद्ध हुए हैं। इन दोनों ही युद्धों में सिक्ख अंग्रेज़ों से पराजित हुए और उन्हें अंग्रेज़ों से उनकी मनमानी शर्तों के अनुसार सन्धि करनी पड़ी। प्रथम युद्ध में पराजय के कारण सिक्खों को अंग्रेज़ों के साथ 9 मार्च, 1846 ई. को ‘लाहौर की सन्धि’ और इसके उपरान्त एक और सन्धि, ‘भैरोवाल की सन्धि’ 22 दिसम्बर, 1846 ई. को करनी पड़ी। इन सन्धियों के द्वारा ‘लाल सिंह’ को वज़ीर के रूप में अंग्रेज़ों ने मान्यता प्रदान कर दी और अपनी एक रेजीडेन्ट को लाहौर में रख दिया। महारानी ज़िन्दा कौर को दलीप सिंह से अलग कर दिया गया, जो की दलीप सिंह की संरक्षिका थीं। उन्हें ‘शेखपुरा’ भेज दिया गया। द्वितीय युद्ध में सिक्खों ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। दलीप सिंह को पेन्शन प्रदान कर दी गई। उसे व रानी ज़िन्दा कौर को 5 लाख रुपये वार्षिक पेन्शन पर इंग्लैण्ड भेज दिया गया। जहाँ पर कुछ समय बाद ही रानी ज़िन्दा कौर की मृत्यु हो गई।
6. गोरखा युद्ध
गोरखा युद्ध 1816 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार और नेपाल के बीच हुआ। उस समय भारत का गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राज्य का प्रसार नेपाल की तरफ़ भी होने लगा था, जबकि नेपाल अपने राज्य का विस्तार उत्तर की ओर चीन के होने के कारण नहीं कर सकता था। गोरखों ने पुलिस थानों पर हमला कर दिया और कई अंग्रेज़ों को अपना निशाना बनाया। इन सब परिस्थितियों में कम्पनी ने गोरखा लोगों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
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7. बक्सर का युद्ध
बक्सर का युद्ध 1763 ई. से ही आरम्भ हो चुका था, किन्तु मुख्य रूप से यह युद्ध 22 अक्तूबर, सन् 1764 ई. में लड़ा गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा बंगाल के नवाब मीर क़ासिम के मध्य कई झड़पें हुईं, जिनमें मीर कासिम पराजित हुआ। फलस्वरूप वह भागकर अवध आ गया और शरण ली। मीर कासिम ने यहाँ के नवाब शुजाउद्दौला और मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय के सहयोग से अंग्रेज़ों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनायी, किन्तु वह इस कार्य में सफल नहीं हो सका। अपने कुछ सहयोगियों की गद्दारी के कारण वह यह युद्ध हार गया।
■ अंग्रेज़ों की कूटनीति
इस युद्ध में एक ओर मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय, अवध का नवाब शुजाउद्दौला तथा मीर क़ासिम थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व उनका कुशल सेनापति ‘कैप्टन मुनरो’ कर रहा था। दोनों सेनायें बिहार में बलिया से लगभग 40 किमी. दूर ‘बक्सर’ नामक स्थान पर आमने-सामने आ पहुँचीं। 22 अक्टूबर, 1764 को ‘बक्सर का युद्ध’ प्रारम्भ हुआ, किन्तु युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही अंग्रेज़ों ने अवध के नवाब की सेना से ‘असद ख़ाँ’, ‘साहूमल’ (रोहतास का सूबेदार) और जैनुल अबादीन को धन का लालच देकर अलग कर दिया। लगभग तीन घन्टे में ही युद्ध का निर्णय हो गया, जिसकी बाज़ी अंग्रेज़ों के हाथ में रही। शाह आलम द्विताय तुरंत अंग्रेज़ी दल से जा मिला और अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली। मीर क़ासिम भाग गया तथा घूमता-फिरता ज़िन्दगी काटता रहा। दिल्ली के समीप 1777 ई. में अज्ञात अवस्था में उसकी मृत्यु हो गई।
■ भारतीय दासता की शुरुआत
ऐसा माना जाता है कि, बक्सर के युद्ध का सैनिक एवं राजनीतिक महत्व प्लासी के युद्ध से अधिक है। मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय, बंगाल का नवाब मीर क़ासिम एवं अवध का नवाब शुजाउद्दौला, तीनों अब पूर्ण रूप से कठपुतली शासक हो गये थे। उन्हें अंग्रेज़ी सेना के समक्ष अपने बौनेपन का अहसास हो गया था। थोड़ा बहुत विरोध का स्वर मराठों और सिक्खों मे सुनाई दिया, किन्तु वह भी समाप्त हो गया। निःसन्देह इस युद्ध ने भारतीयों की हथेली पर दासता शब्द लिख दिया, जिसे स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद ही मिटाया जा सका। पी.ई. राबर्ट ने बक्सर के युद्ध के बारे में कहा है कि- ‘प्लासी की अपेक्षा बक्सर को भारत में अंग्रेज़ी प्रभुता की जन्मभूमि मानना कहीं अधिक उपयुक्त है’।
■ सन्धि
मीर क़ासिम को नवाब के पद से हटाकर एक बार पुनः मीर जाफ़र को अंग्रेज़ों ने बंगाल का नवाब बनाया। 5 फ़रवरी, 1765 ई. को मीर जाफ़र की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद कम्पनी ने उसके अयोग्य पुत्र नजमुद्दौला को बंगाल का नवाब बनाकर फ़रवरी, 1765 ई. में उससे एक सन्धि कर ली। सन्धि की शर्तों के अनुसार रक्षा व्यवस्था, सेना, वित्तीय मामले, वाह्य सम्बन्धों पर नियंत्रण आदि को अंग्रेज़ों अपने अधिकार में कर लिया तथा बदले में नवाब को 53 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देने का वादा किया। अंग्रेज़ संरक्षण प्राप्त बंगाल का प्रथम नवाब नजमुद्दौला था, तथा बंगाल का अन्तिम नवाब मुबारकउद्दौला (1770-1775 ई.) था।
8. बर्मी युद्ध
बर्मा में तीन क्रमिक बर्मी युद्ध हुए और 1886 ई. में पूरा देश ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। किन्तु 1935 ई. के भारतीय शासन विधान के अंतर्गत बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। 1947 ई. से भारत और बर्मा दो स्वाधीन पड़ोसी मित्र हैं।
■ प्रथम बर्मी युद्ध
पहला आंग्ल-बर्मी युद्ध दो वर्ष (1824-26 ई.) तक चला। इसका कारण बर्मी राज्य की सीमाओं का आसपास तक फैल जाना तथा दक्षिण बंगाल के चटगाँव क्षेत्र पर भी बर्मी अधिकार का ख़तरा उत्पन्न हो जाना था। लार्ड एम्हर्स्ट की सरकार ने, जिसने युद्ध घोषित किया था, आरम्भ में युद्ध के संचालन में पूर्ण अयोग्यता का प्रदर्शन किया, उधर बर्मी सेनापति बंधुल ने युद्ध के संचालन में बड़ी योग्यता का परिचय दिया। ब्रिटिश भारतीय सेना ने बर्मी सेना को आसाम से मारकर भगाया, रंगून (अब यांगून) पर चढ़ाई करके उस पर क़ब्ज़ा कर लिया।
■ द्वितीय बर्मी युद्ध
यन्दबू संधि के आधार पर राजनीतिक एवं व्यावसायिक माँगों के फलस्वरूप 1852 ई. में द्वितीय बर्मा युद्ध छिड़ गया। लार्ड डलहौज़ी ने जो उस समय गवर्नर-जनरल था, बर्मा के शासक पर संधि की सभी शर्तें पूरी करने के लिए ज़ोर डाला। बर्मी शासक का कथन था कि अंग्रेज़ संधि की शर्तों से कहीं अधिक माँग कर रहे हैं। अपनी माँगों को एक निर्धारित तारीख़ तक पूरा कराने के लिए लार्ड डलहौज़ी ने कमोडोर लैम्बर्ट के नेतृत्व में एक जहाज़ी बेड़ा रंगून भेज दिया। ब्रिटिश नौसेना के अधिकारी की तुनुक-मिज़ाजी के कारण ब्रिटिश फ़्रिगेट और एक बर्मी जहाज़ के बीच गोलाबारी हो गई।
■ तृतीय बर्मी युद्ध
तृतीय बर्मी युद्ध 38 वर्ष के बाद 1885 ई. में हुआ। उस समय थिबा ऊपरी बर्मा का शासक राजा था और मांडले उसकी राजधानी थी। लार्ड डफ़रिन भारत का गवर्नर-जनरल था। बर्मी शासक ज़बर्दस्ती दक्षिणी बर्मा छीन लिये जाने से कुपित था और मांडले स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट तथा अधिकारियों को उन मध्ययुगीन शिष्टाचारों को पूरा करने में झुँझलाहट होती थी जो उन्हें थिबासे मुलाक़ात के समय करनी पड़ती थीं। 1852 ई. की पराजय से पूरी तरह चिढ़े हुए थिबा ने फ़्राँसीसियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया।
9. आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध
आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध को ‘अफ़ग़ान युद्ध’ भी कहा जाता है। इतिहास में तीन अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842 ई., 1878-1880 ई., 1919 ई.) लड़े गये थे। भारत के पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान पर रूस का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ रहा था, और यह प्रभाव काफ़ी हद तक भारत के लिए ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था। रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए और अफ़ग़ानिस्तान को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानों के विरुद्ध अपनी भारतीय चौकी से तीन बार हमले किए। पहले युद्ध में विजय उन्हें आसानी से मिल तो गई, लेकिन उस पर नियंत्रण बनाये रखना कठिन हो गया। दूसरे युद्ध में विजय के लिए अंग्रेज़ों को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेज़ अफ़ग़ानिस्तान पर स्थायी क़ब्ज़ा तो नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने उसकी नीति पर नियंत्रण बनाये रखा। तृतीय और अंतिम युद्ध अफ़ग़ानिस्तान की करारी हार और ‘रावलपिण्डी की सन्धि’ (अगस्त, 1919 ई.) के साथ समाप्त हुआ। इसके पश्चात ही अफ़ग़ानिस्तान पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गया।
10. आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध प्रथम
प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842 ई.) ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन काल में गवर्नर-जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड के समय में शुरू हुआ और यह उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड एलनबरो के समय तक चलता रहा। रूस अपनी शक्ति काफ़ी बढ़ा चुका था और अब वह अफ़ग़ानिस्तान पर भी अपना प्रभाव जमाना चाहता था। अफ़ग़ानिस्तान का अमीर दोस्त मुहम्मद ब्रिटिश सरकार से समझौता करना चाहता था, क्योंकि वह पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से अपनी सुरक्षा चाहता था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ों ने क़ाबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया और वहाँ भयंकर लूटमार की। हज़ारों अफ़ग़ान लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इस ‘आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध’ से कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि इसमें 20,000 भारतीय तथा अंग्रेज़ सैनिक मारे गए और डेढ़ करोड़ रुपया बर्बाद हो गया, जिसको भारत की ग़रीब जनता से वसूला गया।
रूस का बढ़ता प्रभाव
1868 ई. में अफ़ग़ानिस्तान का भूतपूर्व अमीर शाहशुजा अंग्रेज़ों का पेंशनयाफ्ता होकर पंजाब के लुधियाना नगर में रहता था। उस समय रूस के गुप्त समर्थन से फ़ारस की सेना ने अफ़ग़ानिस्तान के सीमावर्ती नगर हेरात को घेर लिया। हेरात बहुत सामरिक महत्त्व का नगर माना जाता था और उसे ‘भारत का द्वार’ समझा जाता था। जब उस पर रूस की सहायता से फ़ारस ने क़ब्ज़ा कर लिया तो इंग्लैंड की सरकार ने उसे भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के लिए ख़तरा माना। हालांकि उस समय फ़ारस और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच में पंजाब में रणजीत सिंह और अफ़ग़ानिस्तान में दोस्त मुहम्मद का स्वतंत्र राज्य था।
दोस्त मुहम्मद की इच्छा
अमीर दोस्त मुहम्मद भी हेरात पर फ़ारस के हमले से रूसी आक्रमण का ख़तरा महसूस कर रहा था। वह अपनी सुरक्षा के लिए भारत की ब्रिटिश सरकार से समझौता करना चाहता था। किन्तु वह अपने पूरब के पड़ोसी महाराजा रणजीत सिंह से अपनी सुरक्षा की गारंटी चाहता था, जिसने हाल ही में पेशावर पर अधिकार कर लिया था। अत: उसने इस शर्त पर ‘आंग्ल-अफ़ग़ान गठबंधन’ का प्रस्ताव रखा कि अंग्रेज़ उसे रणजीत सिंह से पेशावर वापस दिलाने में मदद देंगे और इसके बदले में अमीर अपने दरबार तथा देश को रूसियों के प्रभाव से मुक्त रखेगा। लॉर्ड ऑकलैंड की सरकार महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति से भय खाती थी और उसने उस पर किसी भी प्रकार का दबाव डालने से इन्कार कर दिया।
भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध कब और किसके बीच हुए? |
त्रिपक्षीय सन्धि तथा हमला
बर्न्स, जिसे ऑकलैंड ने अमीर से बातचीत के लिए क़ाबुल भेजा था, अप्रैल 1838 ई. में क़ाबुल से ख़ाली हाथ लौट आया। उसके लौटने के बाद अमीर ने एक रूसी एजेंट की आवभगत की, जो कुछ समय से उसके दरबार में रहता था और अब तक उपेक्षा का पात्र बना हुआ था। इस बात को ऑकलैंड की सरकार ने अमीर का शत्रुतापूर्ण व्यवहार समझा और जुलाई, 1838 ई. में उसने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और निष्कासित अमीर शाहशुजा से, जो लुधियाना में रहता था, एक त्रिपक्षीय संधि कर ली, जिसका उद्देश्य शाहशुजा को फिर से अफ़ग़ानिस्तान की गद्दी पर बैठाना था। यह अनुमान था कि शाहशुजा क़ाबुल में अमीर बनने के बाद अपने विदेशी संबंधों में, ख़ासतौर से रूस के संबंध में भारत की ब्रिटिश सरकार से नियंत्रित होगा। इस आक्रामक और अन्यायपूर्ण त्रिपक्षीय संधि के बाद आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध अनिवार्य हो गया। इस त्रिपक्षीय संधि का यदि जुलाई 1838 में कुछ औचित्य भी था तो वह सितम्बर में फ़ारस की सेना द्वारा हेरात का घेरा उठा लिये जाने और अफ़ग़ान क्षेत्र से हट जाने के बाद समाप्त हो गया। लेकिन लॉर्ड ऑकलैण्ड को इससे सन्तोष नहीं हुआ और अक्टूबर में उसने अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई कर दी।
दोस्त मुहम्मद का आत्म-समर्पण
इस आक्रमण का कोई औचित्य नहीं था और इसके द्वारा 1832 ई. में सिंध के अमीरों से की गई संधि का भी उल्लंघन होता था, क्योंकि अंग्रेज़ी सेना उनके क्षेत्र से होकर अफ़ग़ानिस्तान गयी थी। इस युद्ध का संचालन भी बहुत ग़लत ढंग से किया गया। आरम्भ में अंग्रेज़ी सेना को कुछ सफलता मिली। अप्रैल 1839 ई. में कंधार पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। जुलाई में अंग्रेज़ी सेना ने ग़ज़नी ले लिया और अगस्त में क़ाबुल। दोस्त मुहम्मद ने क़ाबुल ख़ाली कर दिया और अंत में अंग्रेज़ सेना के आगे आत्म समर्पण कर दिया। उसको बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया और शाहशुजा को फिर से अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना दिया गया। किन्तु इसके बाद ही स्थिति और भी विषम हो गई।
■ अफ़ग़ानों का क्रोध
शाहशुजा को अमीर बनाने के बाद अंग्रेज़ी सेना वहाँ से वापस बुला लेनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। शाहशुजा केवल कठपुतली शासक था और देश का प्रशासन वास्तव में सर विलियम मैकनाटन के हाथों में था, जिसको लॉर्ड ऑकलैंड ने राजनीतिक अधिकारी के रूप में वहाँ भेजा था। अफ़ग़ान लोग पहले से ही शाहशुजा को पसन्द नहीं करते थे और इस बात से बहुत नाराज थे कि अंग्रेज़ी सेना की बन्दूकों की ओर से उसे अमीर बना दिया गया है। इसीलिए क़ाबुल में अंग्रेज़ी आधिपत्य सेना को रखना ज़रूरी हो गया था। युद्ध के कारण चीज़ों के दाम बेतहाशा बढ़ गये थे, जिससे जनता का हर वर्ग पीड़ित था। अंग्रेज़ी सेना की कुछ हरकतों से भी जनरोष प्रबल हो गया था। इस मौके का दोस्त मुहम्मद के लड़के अकबर ख़ाँ ने चालाकी से फायदा उठाया और 1841 ई. में पूरे देश में शाहशुजा और उसकी संरक्षक अंग्रेज़ सेना के विरुद्ध बड़े पैमाने पर बलवे शुरू हो गए। सर विलियन मैकनाटन के ख़ास सलाहकार एलेक्ज़ेंडर बर्न्स की अनीति से अफ़ग़ान लोग चिढ़े हुए थे। नवम्बर, 1841 ई. में एक क्रुद्ध अफ़ग़ान भीड़ बर्न्स और उसके भाई को घर से घसीट कर ले गई और दोनों को मार डाला।
■ आक्रमण
मैकनाटन और क़ाबुल स्थित अंग्रेज़ी सेना के कमाण्डर जनरल एनफ़िंस्टन ने उस समय ढुलमुलपन और कमज़ोरी का प्रदर्शन किया और दिसम्बर में अकबर ख़ाँ से संधि कर ली, जिसके द्वारा अफ़ग़ानिस्तान से अंग्रेज़ी सेना को वापस बुला लेने और दोस्त मुहम्मद को दुबारा अमीर बना देने का आश्वासन दिया गया। शीघ्र ही यह बात साफ़ हो गई कि इस संधि के पीछे मैकनाटन की नीयत साफ़ नहीं है। इस पर अकबर ख़ाँ के आदेश से मैकनाटन और उसके तीन साथियों को मौत के घाट उतार दिया गया। क़ाबुल पर अधिकार करने वाली अंग्रेज़ी सेना के 16,500 सैनिक 6 जनवरी, 1841 ई. को क़ाबुल से जलालाबाद की ओर रवाना हुए, जहाँ जनरल सेल के नेतृत्व में एक दूसरी अंग्रेज़ सेना डटी हुई थी। अंग्रेज़ी सेना की वापसी विनाशकारी सिद्ध हुई। अफ़ग़ानों ने सभी ओर से उस पर आक्रमण कर दिया और पूरी सेना नष्ट कर दी। केवल एक व्यक्ति, ‘डाक्टर विलियम ब्राइडन’ गम्भीर रूप से जख्मी और थका मांदा 13 जनवरी को जलालाबाद पहुँचा।
■ अंग्रेज़ों की विजय
इस दुर्घटना से गवर्नर-जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड और इंग्लैंड की सरकार को गहरा धक्का लगा। ऑकलैंड को इंग्लैंड वापस बुला लिया गया और लॉर्ड एलनबरो को उसके स्थान पर गवर्नर-जनरल (1842-1844 ई.) बनाया गया। एलनबरो के कार्यकाल में जनरल पोलक ने अप्रैल, 1842 ई. में जलालाबाद पर फिर से नियंत्रण कर लिया और मई में जनरल नॉट ने कंधार को फिर से अंग्रेज़ों के अधिकार में ले लिया। इसके बाद दोनों अंग्रेज़ी सेनाएं रास्ते में सभी विरोधियों को कुचलते हुए आगे बढ़ीं और सितम्बर, 1842 ई. में क़ाबुल पर अधिकार कर लिया। इन सेनाओं ने बचे हुए बंदी अंग्रेज़ सिपाहियों को छुड़ाया और अंग्रेज़ों की विजय के उपलक्ष्य में क़ाबुल के बाज़ार को बारूद से उड़ा दिया।
■ क़ाबुल की लूट
अंग्रेज़ों ने क़ाबुल शहर को निर्दयता के साथ ध्वस्त कर डाला, बड़े पैमाने पर लूटमार की और हज़ारों बेगुनाह अफ़ग़ानों को मौत के घाट उतार दिया। इन बर्बरतापूर्ण कृत्यों के साथ इस अन्यायपूर्ण और अलाभप्रद युद्ध का अंत हुआ। शीघ्र ही अफ़ग़ानिस्तान से अंग्रेज़ी सेना को वापस बुला लिया गया और दोस्त मुहम्मद, जिसे कलकत्ता में नज़रबंदी से रिहा कर दिया था, अफ़ग़ानिस्तान वापस लौट गया और 1842 ई. में दोबारा गद्दी पर बैठा, जिससे उसे अनावश्यक और अनुचित तरीके से हटा दिया गया था। वह 1863 ई. तक अफ़ग़ानिस्तान का शासक रहा। उस वर्ष 80 साल की उम्र में उसका देहान्त हुआ।
■ निष्कर्ष
इसमें कोई सन्देह नहीं कि ‘प्रथम अफ़ग़ान युद्ध’ भारत की ब्रिटिश सरकार की ओर से नितांत अनुचित रीति से अकारण ही छेड़ दिया गया था और लॉर्ड ऑकलैंड की सरकार ने उसका संचालन बड़ी अयोग्यता के साथ किया। इस युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ और इसमें 20,000 से भी अधिक भारतीय तथा अंग्रेज़ सैनिक मारे गए। युद्ध में डेढ़ करोड़ रुपया बर्बाद हो गया, जिसको भारत की ग़रीब जनता से जबरन वसूला गया।
11. आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध द्वितीय
्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1878-1880 ई.) तक लड़ा गया। यह युद्ध वायसराय लॉर्ड लिटन प्रथम (1876-1880 ई.) के शासन काल में प्रारम्भ हुआ। इस दूसरे युद्ध में विजय के लिए अंग्रेज़ों को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेज़ अफ़ग़ानिस्तान पर स्थायी रूप से क़ब्ज़ा तो नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने उसकी नीति पर नियंत्रण बनाये रखा और साथ ही अफ़ग़ानों को अपनी शक्ति और सैन्य संगठन का भी परिचय करा दिया। द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति, जिसे ‘अग्रसर नीति’ (फ़ारवर्ड पालिसी) कहा जाता था, इसके अनुसार कंधार तथा क़ाबुल दोनों ब्रिटिश साम्राज्य के लिए आवश्यक माने गये। दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैंड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी थे, दोनों अफ़ग़ानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे।
■ रूस का प्रभुत्व
यह युद्ध वायसराय लॉर्ड लिटन प्रथम के शासन काल से प्रारम्भ होकर और उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड रिपन (1880-1884 ई.) के शासन काल में समाप्त हुआ। अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु 1863 ई. में हो गई थी और उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया। उत्तराधिकार का यह युद्ध (1863-1868 ई.) पांच वर्ष तक चला। इस बीच भारत सरकार ने पूर्ण निष्क्रियता की नीति का पालन किया और क़ाबुल की गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों में किसी का पक्ष नहीं लिया। अन्त में 1868 ई. में जब दोस्त महम्मद के तीसरे बेटे शेरअली ने क़ाबुल की गद्दी प्राप्त कर ली तो भारत सरकार ने उसको अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मान लिया। लेकिन इसी बीच मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बहुत बढ़ गया। रूस ने बुखारा पर 1866 में, ताशकंद पर 1867 में और समरकन्द पर 1868 ई. में अधिकार कर लिया। इस प्रकार रूस का प्रभुत्व बढ़ता ही जा रहा था। मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बढ़ने से अफ़ग़ानिस्तान और भारत की अंग्रेज़ सरकार को चिन्ता हो गयी।
■ शेरअली और मेयो की भेंट
अमीर शेरअली मध्य एशिया में रूस के प्रभाव को रोकना चाहता था और भारत की अंग्रेज़ सरकार अफ़ग़ानिस्तान को रूसी प्रभाव से मुक्त रखना चाहती थी। इन परिस्थितियों में 1869 ई. में पंजाब के अम्बाला नगर में अमीर शेरअली और भारत के वायसराय लॉर्ड मेयो (1869-1872 ई.) की भेंट हुई। उस समय अमीर अंग्रेज़ों की यह मांग मान लेने के लिए तैयार हो सकता था कि वह अपने वैदेशिक संबंध में अंग्रेज़ों का नियंत्रण स्वीकार कर ले और रूस के विरुद्ध उसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ले लें और सहायता करें और उसको अथवा उसके नामजद व्यक्तियों को ही अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मानें। इंग्लैंड के निर्देश पर ब्रिटिश सरकार ने सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने की बात नहीं मानी, यद्यपि शस्त्रास्त्र और धन की सहायता देने का वचन दिया। स्वाभाविक रूप से अमीर शेरअली को भारत सरकार से समझौते की शर्तें संतोषजनक नहीं लगीं। लेकिन 1873 ई. में रूसियों ने खीवा पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार उनका बढ़ाव अफ़ग़ानिस्तान की ओर होने लगा।
■ आंग्ल-अफ़ग़ानिस्तान संधि प्रस्ताव
रूस के इस बढ़ते प्रभाव और इन हालातों से चिन्तित होकर अमीर शेरअली ने 1873 ई. में वायसराय लॉर्ड नार्थब्रुक (1872-1876 ई.) के सामने ‘आंग्ल-अफ़ग़ानिस्तान संधि’ का प्रस्ताव रखा, जिसमें अफ़ग़ानिस्तान को यह आश्वासन देना था कि यदि रूस अथवा उसके संरक्षण में कोई राज्य अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण करे तो ब्रिटिश सरकार अफ़ग़ानिस्तान की सहायता केवल शस्त्रास्त्र और धन देकर ही नहीं करेगी वरन् अपनी सेना भी वहाँ पर भेजेगी। उस समय इंग्लैंड में ग्लैडस्टोन का मंत्रिमंडल था। उसकी सलाह के अनुसार लॉर्ड नार्थब्रुक इस प्रस्ताव पर राजी नहीं हुआ। नार्थब्रुक इस बात के लिए राजी नहीं हुआ कि अमीर शेरअली के पुत्र अब्दुल्ला जान को उसका वारिस मानकर उसे भावी अमीर मान ले। इन बातों से शेरअली अंग्रेज़ों से नाराज हो गया और उसने रूस से अपने सम्बन्ध सुधारने के लिए लिखा पढ़ी शुरू कर दी। रूसी एजेन्ट जल्दी-जल्दी क़ाबुल आने लगे।
■ अंग्रेज़ों की नीति
1874 ई. में डिज़रेली ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना और 1877 ई. में रूस-तुर्की युद्ध शुरू हो गया, जिससे इंग्लैंड और रूस के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो गई और दोनों में किसी समय भी युद्ध छिड़ने की आशंका उत्पन्न हो गई। इस हालात में अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानिस्तान पर अपना मज़बूत नियंत्रण रखने का फैसला किया, जिससे अफ़ग़ानिस्तान से होकर भारत में अंग्रेज़ राज्य के लिए कोई ख़तरा न उत्पन्न हो। इस नीति के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ों ने क्वेटा पर 1877 ई. में अधिकार कर लिया, क्योंकि कंधार के रास्ते की सुरक्षा के लिए उस पर नियंत्रण रखना ज़रूरी था। लॉर्ड नार्थब्रुक के उत्तराधिकारी लॉर्ड लिटन प्रथम (1876-1880 ई.) ने डिज़रेली मंत्रिमंडल की सलाह से क़ाबुल दरबार में एक ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल भेजने का निश्चय किया, जिसे 1873 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के अमीर द्वारा प्रस्तावित शर्तों के आधार पर संधि की बातचीत शुरू करनी थी। उन शर्तों के अलावा यह शर्त भी रखी गयी कि हेरात में भी ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखा जाये। लेकिन अमीर ने ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल क़ाबुल भेजने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उसकी ओर से कहा गया कि यदि अफ़ग़ानिस्तान में ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल आयेगा तो रूस के प्रतिनिधिमंडल को भी आने की इजाजत देनी पड़ेगी।
■ द्वितीय युद्ध की शुरुआत
इस प्रकार इस मामले में गतिरोध-सा उत्पन्न हो गया। लेकिन अमीर के प्रतिबंध के बावजूद एक रूसी प्रतिनिधिमंडल जनरल स्टोलीटाफ के नेतृत्व में 1878 ई. में अफ़ग़ानिस्तान पहुँचा और उसने अमीर शेरअली से 22 जुलाई, 1878 ई. को संधि की बातचीत शुरू कर दी। उसने अफ़ग़ानिस्तान पर विदेशी हमला होने पर रूस की ओर से सुरक्षा की गारंटी देने का प्रस्ताव रखा। रूसी प्रतिनिधिमंडल के क़ाबुल में हुए स्वागत से लॉर्ड लिटन प्रथम भयंकर रूप से क्रुद्ध हो गया और उसने इंग्लैंड की ब्रिटिश सरकार के परामर्श से अफ़ग़ानिस्तान के अमीर पर इस बात का दबाव डाला कि वह क़ाबुल में ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल का भी स्वागत एक निश्चित तारीख 20 नवम्बर, 1878 ई. को करे। अमीर ने तब नयी संधि के अंतर्गत रूस से मदद मांगी। लेकिन इस बीच रूस-तुर्की युद्ध समाप्त हो गया था और यूरोप में शांति स्थापित हो गई थी और इंग्लैंड और रूस के बीच 1878 ई. की ‘बर्लिन की संधि’ हो गई थी। रूस अब इंग्लैंड से युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने शेरअली को अंग्रेज़ों से सुलह करने की सलाह दी, लेकिन शेरअली ने अब सुलह में काफ़ी देर कर दी थी, क्योंकि अंग्रेज़ सेना ने 20 नवम्बर को अफ़ग़ानिस्तान पर हमला बोल दिया और इस प्रकार दूसरा आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध शुरू हो गया।
■ अंग्रेज़ों की सफलता
जिस प्रकार प्रथम अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842 ई.) में ब्रिटिश भारतीय सेना को आरम्भ में सफलताएं मिली थीं, इस प्रकार इस बार भी मिलीं। रूस के साथ न देने के कारण शेरअली अंग्रेज़ी आक्रमण का अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका। तीन अंग्रेज़ी सेनाओं ने तीन ओर से क़ाबुल पर चढ़ाई कर दी। जनरल ब्राउन के नेतृत्व में एक सेना ख़ैबर दर्रे से, दूसरी सेना जनरल (बाद में लॉर्ड) राबर्ट्स के नेतृत्व में कुर्रम की घाटी से और तीसरी सेना जनरल बीडल्फ़ के नेतृत्व में क्वेटा से आगे बढ़ी। चौथी ब्रिटिश सेना ने जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में कंधार पर अधिकार कर लिया। शेरअली की हालत एक महीने में ही इतनी पतली हो गई कि वह अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर तुर्कीस्तान भाग गया, जहाँ शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी।
■ गंडमक की संधि
शेर अली की मृत्यु के बाद उसके बेटे याकूब ख़ाँ ने अंग्रेज़ों से सुलह की बातचीत चलायी और मई, 1879 ई. में ‘गंडमक की संधि’ कर ली। इस संधि में अंग्रेज़ों की सभी शर्तें मंजूर कर ली गईं। इसके अलावा क़ाबुल में ब्रिटिश राजदूतों को रखना तय हुआ और अफ़ग़ानिस्तान की वैदेशिक नीति भारत के वायसराय की राय से तय करने की बात भी मान ली गई। कुर्रम, पिशीन और सिबी के ज़िले भी अंग्रेज़ों को सौंप दिये गए। ‘गंडमक की संधि’ के अनुसार प्रथम ब्रिटिश राजदूत ‘कैवगनरी’ जुलाई, 1879 ई. में क़ाबुल पहुँच गया।
■ अफ़ग़ानों का विद्रोह
कैवगनरी के क़ाबुल आने के समय ऐसा मालूम होता था कि इस युद्ध में अंग्रेज़ों को पूरी सफलता मिली है। लेकिन 3 सितम्बर को क़ाबुल की अफ़ग़ान सेना में विद्रोह हो गया, कैवगनरी की हत्या कर दी गई और फिर से लड़ाई शुरू हो गयी। अंग्रेज़ों ने इस बार तत्काल प्रभावशाली ढंग से कार्रवाही की। राबर्ट्स ने अक्टूबर, 1879 ई. में क़ाबुल पर अधिकार कर लिया और अमीर याकूब ख़ाँ की हालत क़ैदी जैसी हो गई। उसके भाई अयूब ख़ाँ ने अपने को अमीर घोषित कर दिया और उसने जुलाई 1880 ई. में ब्रिटिश सेना को कंधार के निकट भाईबन्द के युद्ध में पराजित कर दिया। लेकिन राबर्ट्स एक बड़ी सेना लेकर क़ाबुल से कंधार पहुँचा। शेरअली के भतीजे अब्दुर्रहमान ने भी अंग्रेज़ों की काफ़ी मदद की और ब्रिटिश सेना ने अयूब ख़ाँ को पूरी तरह से हरा दिया।
■ युद्ध की समाप्ति
इसी बीच इंग्लैंड में डिज़रेली के स्थान पर ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बन गया, जिसने भारत के वायसराय लॉर्ड लिटन को वापस बुलाकर लॉर्ड रिपन को भारत का वायसराय (1880-1884 ई.) बनाया। नये वायसराय ने अब्दुर्रहमान के साथ संधि करके दूसरा आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध समाप्त कर दिया। इस संधि में अब्दुर्रहमान ख़ाँ को अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मान लिया गया। अमीर ने अंग्रेज़ों से वार्षिक सहायता पाने के बदले में अपनी वैदेशिक नीति पर भारत सरकार का नियंत्रण स्वीकार कर लिया। ‘गंडमक की संधि’ में जो ज़िले अंग्रेज़ों को मिले थे, वे उनके पास ही बने रहे।
■ समग्र विश्लेषण
दूसरा आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति जिसे ‘अग्रसर नीति’ (फ़ारवर्ड पालिसी) कहा जाता था, उसके अनुसार भारत की, पश्चिमोत्तर में, प्राकृतिक सीमा हिन्दूकुश होनी चाहिए। इस नीति के अनुसार भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में कंधार और क़ाबुल को, जो भारत के दो द्वार माने जाते थे, सम्मिलित करना आवश्यक माना जाता था। दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैंड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी थे, दोनों अफ़ग़ानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे। इंग्लैंड में विशेष रूप से ‘कंजरवेटिव पार्टी’ को अफ़ग़ानिस्तान होकर भारत की ओर रूसी प्रसार का तीव्र भय था। यद्यपि यह भय कभी साकार नहीं हुआ तथापि इसने अफ़ग़ानिस्तान के प्रति ब्रिटिश नीति को समूची 19वीं शताब्दी भर प्रभावित किया।
भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध कब और किसके बीच हुए? |
12. आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध तृतीय
तृतीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (अप्रैल-मई, 1919 ई.) तक चला। यह युद्ध दो महिने की अल्पावधि में लड़ा गया था। अफ़ग़ानिस्तान के अमीर हबीबुल्लाह (1901-1919 ई.) के पुत्र शाह अमानुल्लाह (1919-1929 ई.) ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिसके फलस्वरूप ‘तृतीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध’ शुरू हो गया। इस युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना ने आधुनिक हथियारों तथा विमानों आदि का प्रयोग किया और अफ़ग़ानों को बुरी तरह पराजित किया। ‘रावलपिण्डी की सन्धि’ के साथ ही यह युद्ध समाप्त हो गया।
■ युद्ध की शुरुआत
अमीर अब्दुर्रहमान ने, जिसे लॉर्ड रिपन ने अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मान लिया था, उसने 1901 ई. में अपनी मृत्यु पर्यन्त तक शासन किया। उसके उत्तराधिकारी अमीर हबीबुल्लाह ने अपने को अफ़ग़ानिस्तान का शाह घोषित किया और उसने भारत की अंग्रेज़ी सरकार से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखा। लेकिन उसके बेटे और उत्तराधिकारी शाह अमानुल्लाह ने आंतरिक झगड़ों और अफ़ग़ानिस्तान में व्याप्त अंग्रेज़ विरोधी भावनाओं के कारण गद्दी पर बैठने के बाद ही भारत की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस तरह तीसरा आंग्ल अफ़ग़ान युद्ध शुरू हो गया।
■ रावलपिंडी की संधि
यह युद्ध केवल दो महिने तक चला। भारत की ब्रिटिश सेना ने बमों, विमानों, बेतार के तार की संचार व्यवस्था और आधुनिक शस्त्रास्त्रों का प्रयोग करके अफ़ग़ानों को हरा दिया। अफ़ग़ानों के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र नहीं थे। उन्हें मजबूर होकर शांति संधि के लिए झुकना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप ‘रावलपिंडी की संधि’ (अगस्त, 1919 ई.) हुई।
■ संधि की शर्तें
- ‘रावलपिंडी की संधि’ निम्न शर्तों पर की गई थी-
- इस संधि के द्वारा तय हुआ कि अफ़ग़ानिस्तान भारत के मार्ग से शस्त्रास्त्रों का आयात नहीं करेगा।
- अफ़ग़ानिस्तान के शाह को भारत से दी जाने वाली आर्थिक सहायता भी बंद कर दी गई और अफ़ग़ानिस्तान को अपने वैदेशिक संबंधों की पूरी आज़ादी दे दी गई।
- भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों ने एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करने का निश्चय किया।
- यह भी तय हुआ कि अफ़ग़ानिस्तान अपना राजदूत लंदन में रखेगा और इंग्लैंड का राजदूत क़ाबुल में रखा जायेगा।
- रावलपिण्डी की संधि के बाद से ही आंग्ल-अफ़ग़ान संबंध प्राय: मैत्रीपूर्ण रहा, और एशिया में शांति स्थापित हो गई।
13. वाडीवाश का युद्ध
- वाडीवाश का युद्ध वर्ष 1760 में अंग्रेज़ों और फ़्राँसीसियों के मध्य लड़ा गया था। युद्ध में फ़्राँसीसियों की हार हुई और उन्हें पाण्डिचेरी अंग्रेज़ों को सौंपना पड़ा।
- बंगाल के साधनों से बलशाली होकर अंग्रेज़ों ने वाडीवाश का युद्ध छेड़ा और फ्राँसीसियों को पराजित किया।
- इस विजय के साथ ही अंग्रेज़ों ने भारत में फ्राँसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त कर दी।
- वाडीवाश का युद्ध फ़्राँसीसियों के लिए निर्णायक युद्ध था, क्योंकि फ़्राँसीसियों की समझ में यह बात पूर्ण रूप से आ चुकी थी कि वे कम से कम भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रहते सफल नहीं हो सकते। चाहे वह उत्तर-पूर्व हो या पश्चिम या फिर दक्षिण भारत।
- 1763 ई. में सम्पन्न हुई ‘पेरिस सन्धि’ के द्वारा अंग्रेज़ों ने चन्द्रनगर को छोड़कर शेष अन्य प्रदेश, जो फ़्राँसीसियों के अधिकार में 1749 ई. तक थे, वापस कर दिये और ये क्षेत्र भारत के स्वतंत्र होने तक इनके पास बने रहे।
14. पोर्टो नोवो युद्ध
- पोर्टो नोवो की लड़ाई 1781 ई. में मैसूर के हैदरअली और सर आयरकूट के नेतृत्व में कम्पनी फ़ौजों के बीच की गई।
- 1781 में कोलेरून नदी के तट पर हुए युद्ध में हैदर अली के पुत्र टीपू सुल्तान ने 400 फ़्राँसीसी सैनिकों के सहयोग से 100 ब्रिटिश और 1,800 भारतीय सैनिकों को पराजित कर दिया।
- उसी वर्ष अप्रैल में जब अंग्रेज़ हैदर अली और टीपू सुल्तान को मैदान में स्थित उनके प्रमुख शस्त्रागार अरनी के क़िले से खदेड़ने का प्रयास कर रहे थे, तो पोर्टो नोवो में 1,200 फ़्राँसीसी सैनिक उतरे और कड्डालोर पर क़ब्ज़ा कर लिया।
- जॉर्ज मैकार्टने द्वारा मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के गवर्नर का पद सम्भालने के बाद ब्रिटिश नौसेना ने नागपट्टिणम पर अधिकार कर लिया और हैदर अली को यक़ीन दिला दिया कि वह अंग्रेज़ों को नहीं रोक सकते।
- इसमें हैदरअली हार गया और उसे भारी क्षति उठानी पड़ी। फलस्वरूप उसकी शक्ति नियंत्रित कर दी गई।
15. आंग्ल-मराठा युद्ध
भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और ‘मराठा महासंघ’ के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में काफ़ी भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। जहाँ रघुनाथराव ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मित्रता करके पेशवा बनने का सपना देखा, और अंग्रेज़ों के साथ सूरत की सन्धि की, वहीं क़ायर बाजीराव द्वितीय ने बसीन भागकर अंग्रेज़ों के साथ बसीन की सन्धि की और मराठों की स्वतंत्रता को बेच दिया। पहला युद्ध(1775-1782 ई.) रघुनाथराव द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा। इसमें अंग्रेज़ों को बंबई (वर्तमान मुंबई) के पास ‘सालसेत द्वीप’ पर क़ब्ज़े के रूप में एकमात्र लाभ मिला। 1818 ई. में बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। अंग्रेज़ों ने उसे बन्दी बनाकर बिठूर भेज दिया था, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों के पतन में मुख्य भूमिका बाजीराव द्वितीय की ही रही थी, जिसने अपनी क़ायरता और धोखेबाज़ी से सम्पूर्ण मराठों और अपने कुल को कलंकित किया था।
भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध कब और किसके बीच हुए? |
■ युद्ध
■ अंगेज़ों और मराठों के मध्य तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए-
- प्रथम युद्ध (1775 – 1782 ई.)
- द्वितीय युद्ध (1803 – 1806 ई.)
- तृतीय युद्ध (1817 – 1818 ई.)
■ प्रथम युद्ध
प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध 1775 – 1782 ई. तक चला। राघोवा (रघुनाथराव) ईस्ट इंडिया कम्पनी से सांठ-गांठ करके स्वयं पेशवा बनने का सपना देखने लगा था। उसने 1775 ई. में अंग्रेज़ों से सूरत की सन्धि की, जिसके अनुसार बम्बई सरकार राघोवा से डेढ़ लाख रुपये मासिक ख़र्च लेकर उसे 2500 सैनिकों की सहायता देगी। इस सहायता के बदले राघोवा ने अंग्रेज़ों को बम्बई के समीप स्थित सालसेत द्वीप तथा बसीन को देने का वचन दिया। 1779 ई. में कम्पनी सेना की बड़गाँव नामक स्थान पर भंयकर हार हुई और उसे बड़गाँव की सन्धि करनी पड़ी। इस हार के बावजूद भी वारेन हेस्टिंग्स ने सन्धि होने तक युद्ध को जारी रखा था।
■ द्विताय युद्ध
द्वितीय-आंग्ल मराठा युद्ध 1803 – 1806 ई. तक चला। बाजीराव द्वितीय को अपने अधीन बनाने के पश्चात अंग्रेज़ इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि, वे होल्कर, भोसलें तथा महादजी शिन्दे को भी अपने अधीन कर लें। साथ ही वे अपनी कूटनीति से उस पारस्परिक कलह और फूट को बढ़ावा भी देते रहे, जो मराठा राजनीति का सदा ही एक गुण रहा था। वास्को द गामा दूसरी बार 1502 में कालीकट आया और कोचीन में प्रथम पुर्तग़ाली फ़ैक्ट्री की स्थापना की।
■ तृतीय युद्ध
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1817 – 1818 ई. तक चला। यह युद्ध अन्तिम रूप से वारेन हेस्टिंग्स के भारत के गवर्नर-जनरल बनने के बाद लड़ा गया। अंग्रेजों ने नवम्बर, 1817 में महादजी शिन्दे के साथ ग्वालियर की सन्धि की, जिसके अनुसार महादजी शिन्दे पिंडारियों के दमन में अंग्रेजों का सहयोग करेगा और साथ ही चंबल नदी से दक्षिण-पश्चिम के राज्यों पर अपना प्रभाव हटा लेगा। जून, 1817 में अंग्रेजों ने पेशवा से पूना की सन्धि की, जिसके तहत पेशवा ने ‘मराठा संघ’ की अध्यक्षता त्याग दी।
16. प्लासी युद्ध
प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को लड़ा गया था। अंग्रेज़ और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेनायें 23 जून, 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर ‘नदिया ज़िले’ में भागीरथी नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक गाँव में आमने-सामने आ गईं। सिराजुद्दौला की सेना में जहाँ एक ओर ‘मीरमदान’, ‘मोहनलाल’ जैसे देशभक्त थे, वहीं दूसरी ओर मीरजाफ़र जैसे कुत्सित विचारों वाले धोखेबाज़ भी थे। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे प्रारम्भ हुआ। मीरजाफ़र एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ निष्क्रिय रहे। इस युद्ध में मीरमदान मारा गया। युद्ध का परिणाम शायद नियति ने पहले से ही तय कर रखा था। रॉबर्ट क्लाइव बिना युद्ध किये ही विजयी रहा। फलस्वरूप मीरजाफ़र को बंगाल का नवाब बनाया गया। के.एम.पणिक्कर के अनुसार, ‘यह एक सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी सेठों तथा मीरजाफ़र ने नवाब को अंग्रेज़ों के हाथों बेच डाला’।
यद्यपि प्लासी का युद्ध एक छोटी-सी सैनिक झड़प थी, लेकिन इससे भारतीयों की चारित्रिक दुर्बलता उभरकर सामने आ गई। भारत के इतिहास में इस युद्ध का महत्व इसके पश्चात् होने वाली घटनाओं के कारण है। निःसन्देह भारत में प्लासी के युद्ध के बाद दासता के उस काल की शुरुआत हुई, जिसमें इसका आर्थिक एवं नैतिक शोषण अधिक हुआ। राजनीतिक रूप से भी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति मज़बूत हुई। बंगाल अंग्रेज़ों के अधीन हो गया और फिर कभी स्वतंत्र न हो सका। नया नवाब मीरजाफ़र अपनी रक्षा तथा पद के लिए अंग्रेज़ों पर निर्भर था। उसकी असमर्थता यहाँ तक थी, कि उसे दीवान रायदुर्लभ तथा राम नारायण को उनके विश्वासघात के लिए दण्ड देने से भी अंग्रेज़ों ने मना कर दिया। प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में ‘ल्यूक स्क्राफ़्ट्रन’ को नवाब के दरबार में अंग्रेज़ रेजिडेंट नियुक्त किया गया।
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■ क्लाइब की धन पिपासा
मीरजाफ़र रोबर्ट क्लाइव की कठपुतली के रूप में जब तक अंग्रेज़ों की महत्वाकांक्षा को पूरा कर सकने में समर्थ था, तब तक पद पर बना रहा। उसकी दयनीय स्थिति पर मुर्शिदाबाद के एक दरबारी ने इसे कर्नल क्लाइव का गीदड़ की उपाधि दी थी। स्वयं को बंगाल का नवाब बनाये जाने के उपलक्ष्य में उसने अंग्रेज़ों को उनकी सेवाओं के लिए 24 परगनों की ज़मींदारी से पुरस्कृत किया और क्लाइव को 234,000 पाउंड की निजी भेंट दी। साथ ही 150 लाख रुपये, सेना तथा नाविकों को पुरस्कार स्वरूप दिये गये। बंगाल की समस्त फ़्राँसीसी बस्तियाँ अंग्रेज़ों को दे दी गयीं और यह निश्चित हुआ, कि भविष्य में अंग्रेज़ पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी नहीं देनी होगी। इतना सब कुछ लुटाने के बावजूद भी मीरजाफ़र क्लाइव की बढ़ती धनलिप्सा की पिपासा को शान्त नहीं कर सका, जिसके परिणामस्वरूप 1760 ई. में उसे पदच्युत कर उसके जमाता ‘मीर कासिम’ को बंगाल का नवाब बनाया गया।
■ अंग्रेज़ों व मीर कासिम के मध्य सन्धि
- भारतीय इतिहास में इस वर्ष को ‘शांतिपूर्ण क्रांति का वर्ष’ कहा जाता है। 27 सितम्बर, 1760 को अंग्रेज़ों एवं मीर कासिम के मध्य एक संधि हुई, जिसके आधार पर मीर कासिम ने कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर तथा चटगांव के ज़िले देने की बात मान ली और इसके साथ ही दक्षिण के सैन्य अभियान में कम्पनी को 5 लाख रुपये देने की की बात कही। सन्धि की अन्य शर्ते निम्नलिखित थीं-
- मीर कासिम ने सिल्हट के चूने के व्यापार में कम्पनी के आधे भाग को स्वीकार किया।
- मीर कासिम ने कम्पनी के मित्र अथवा शत्रु को अपना मित्र अथवा शत्रु मानना स्वीकार किया।
- दोनों पक्षों ने एक दूसरे के आसामियों को अपने-अपने प्रदेशों में बसने की छूट दी।
- कम्पनी नवाब के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी।
■ मीर कासिम के प्रयत्न
अलीवर्दी ख़ाँ के बाद बंगाल के नवाब के पद पर कार्य करने वालों में मीर कासिम सर्वाधिक योग्य था। उसने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थानान्तरित की, क्योंकि वह मुर्शिदाबाद के षडयंत्रमय वातावरण से स्वयं को दूर रखना चाहता था। उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से गठित करने के लिए मुंगेर में तोड़ेदार बंदूक़ों एवं तोपों के कारखानों की स्थापना की तथा सैनिकों की संख्या में वृद्धि की। इसने अपनी सेना को गुर्गिन ख़ाँ नामक आर्मेनियाई के नियंत्रण में रखा। मीर कासिम ने अपने ख़िलाफ़ षडयंत्र कर रहे बिहार के उप-सूबेदार राम नारायण, जिसे अंग्रेज़ों का समर्थन प्राप्त था, को सेवा से हटाकर मरवा दिया। उसने एक और कर ‘खिजरी जमा’, जो अभी तक अधिकारियों द्वारा छुपाया जाता रहा था, भी प्राप्त किया। मीर कासिम को राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए प्रयत्नशील देखकर अंग्रेज़ अधिकारी बौखलाये, क्योंकि उन्हें यह बर्दाश्त नहीं था, कि बंगाल में ऐसा कोई व्यक्ति शासन करे, जो उनके आर्थिक हितों को हानि पहुँचाता हो।
■ बक्सर का युद्ध
- मीर कासिम ने देखा कि अंग्रेज़ ‘गुमाश्ते दश्तक’ (बिना चुंगी के व्यापार का अधिकार पत्र) का दुरुपयोग कर रहे हैं, और चुंगी देने की व्यवस्था का उल्लंघन कर रहे हैं। अंग्रेज़ों ने दस्तक का धन लेकर भारतीय व्यापारियों को भेजना प्रारम्भ कर दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ, कि जो धन चुंगी के रूप में नवाब को मिलता था, वह भी समाप्त होने लगा। अन्ततः मीर कासिम ने व्यापार पर से सभी आन्तरिक कर हटा लिए, जिससे भारतीय व्यापारियों की स्थिति अंग्रेज़ व्यापारियों की तरह ही हो गई। मीर कासिम के इस निर्णय से अंग्रेज़ अधिकारी स्तब्ध रह गये। सम्भवतः उसका यही निर्णय कालान्तर में बक्सर के युद्ध का कारण बना। बक्सर के युद्ध से पहले मीर कासिम अंग्रेज़ों से निम्नलिखित युद्धों में पराजित हुआ-
- गिरिया का युद्ध – 4 सितम्बर अथवा 5 सितम्बर, 1762 ई.
- करवा का युद्ध – 9 जुलाई, 1763 ई.
- उद्यौनला का युद्ध – 1763 ई.
भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध कब और किसके बीच हुए? |
17. फ़िरोज़शाह का युद्ध
- फ़िरोज़शाह का युद्ध 21 और 22 दिसम्बर को प्रथम सिक्ख युद्ध (1845-1846 ई.) के दौरान सिक्खों और अंग्रेज़ों के बीच लड़ा गया। इस युद्ध में सिक्खों को पराजय का मुँह देखना पड़ा, लेकिन अंग्रेज़ों को भी एक बहुत भारी क़ीमत इस युद्ध को जीतने के लिये चुकानी पड़ी। उनके हज़ारों सैनिक इस युद्ध में मारे गये।
- सर ह्यू गॅफ़ के नेतृत्व में 35 हज़ार सैनिकों वाली सिक्ख सेना पर आक्रमण किया। लगभग खदेड़े जाने और संकट की रात्रि के बाद अंग्रजों ने लगभग 2,400 सैनिकों की जान गंवाकर सुबह जीत हासिल की, जबकि क़रीब 8,000 सिक्ख सैनिक मारे गए।
- सामने से किए इस हानिकारक आक्रमण के लिए गॅफ़ की आलोचना की गई, लेकिन उन्होंने 10 फरवरी 1846 को सोबरांव में युद्ध में अंतिम विजय प्राप्त कर ली।
- 21 दिसम्बर की रात को युद्ध के पहले दिन ब्रिटिश फ़ौज की हालत बेहद नाज़ुक थी, जब उसे खुले मैदान में पड़ाव डालना पड़ा।
- दूसरे ही दिन तड़के दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध फिर से प्रारम्भ हुआ।
- सिक्ख जनरल तेजा सिंह द्वारा स्वार्थवश बहादुर सैनिकों को पीछे हटने का आदेश दिये जाने के कारण यह युद्ध अकस्मात ही समाप्त हो गया।
- युद्ध में सिक्खों की हार हुई, किन्तु अंग्रेज़ों को जीत का बड़ा भारी मूल्य चुकाना पड़ा।
- ब्रिटिश फ़ौज के 2415 जवान हताहत हुए, जिसमें 103 अधिकारी भी थे।
- अधिकारियों में गवर्नर-जनरल के पाँच अंगरक्षक मारे गये और चार घायल हो गये।
- इस लड़ाई की समाप्ति के बाद भी सिक्ख-अंग्रेज़ युद्ध समाप्त नहीं हुआ।
- 1845-1846 ई. के बीच कुल पाँच लड़ाईयाँ लड़ी गईं, जिनमें से चार का नतीजा नहीं निकल सका।
- 10 फ़रवरी, 1846 ई. में ‘सबराओ’ की पाँचवीं लड़ाई निर्णायक सिद्ध हुई, जिसमें अंग्रेज़ों की विजय हुई।
- लालसिंह और तेजा सिंह के विश्वासघात के कारण ही सिक्खों की पूर्णतया हार हुई, जिन्होंने सिक्खों की कमज़ोरियों का भेद अंग्रेज़ों को दे दिया था।
18. मियानी का युद्ध
- मियानी का युद्ध 17 फ़रवरी, सन 1843 में लड़ा गया था। यह युद्ध पुर्तग़ाली और अंग्रेज़ी नौसेना में एडमिरल सर चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में क़रीब 2,800 अंग्रेज़ सैनिकों और सिंध के अमीरों के 20,000 से अधिक समर्थकों के बीच हुआ था।[1]
- इतिहास प्रसिद्ध इस युद्ध में अंग्रेज़ों की जीत हुई। विजय के फलस्वरूप अंग्रेज़ों द्वारा सिंध के अधिकतर भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया गया।
- प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1839-1842 ई.) के दौरान अंग्रेज़ों के प्रति अमीर के रवैये के ख़िलाफ़ शिकायतें आई थीं। ब्रिटिश रेज़िडेंट को बंदोबस्त सौंपने के बजाय अंग्रेज़ों ने सितंबर, 1842 में नेपियर को पूर्ण नागरिक एवं सैन्य अधिकार दे दिए।
- नेपियर ने सिंध के अमीर पर एक नई कठोर संधि थोपी और रेगिस्तानी इमामगढ़ के क़िले पर क़ब्ज़ा करके उसे नेस्तनाबूद कर दिया। इसके बाद एक जनांदोलन खुले युद्ध में बदल गया।
- मियानी में अंग्रेज़ों की जीत हुई। अमीर की सेना बिखर गई और खैरपुर राज्य के अलावा सिंध प्रांत पर क़ब्ज़ा कर लिया गया।
- रेज़िडेंट सर जेम्स ऊट्रम ने इस कार्यवाही की आलोचना की और इस तरह जाने-माने विवाद की शुरुआत हुई।
- गवर्नर-जनरल लॉर्ड एलनबरो को वापस बुला लिया गया, लेकिन सिंध ब्रिटिश क़ब्ज़े में ही रहा।
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19. आंग्ल-बर्मा युद्ध प्रथम
- प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध दो वर्ष (1824 से 1826 ई.) तक चला था। युद्ध का मुख्य कारण बर्मा राज्य की सीमाओं का ब्रिटिश साम्राज्य के आस-पास तक फैल जाना था, जिस कारण से अंग्रेज़ों के समक्ष एक संकट खड़ा होने का ख़तरा बड़ गया था। इस युद्ध के प्रारम्भ में अंग्रेज़ गवर्नर-जनरल लॉर्ड एमहर्स्ट ने पूर्ण अयोग्यता का प्रदर्शन किया। फिर भी अंग्रेज़ सैनिकों ने डटकर मुकाबला किया और रंगून (अब यांगून) पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया।
- बर्मा के सीमा विस्तार के फलस्वरूप दक्षिण बंगाल के चटगाँव क्षेत्र पर भी बर्मी अधिकार का ख़तरा उत्पन्न हो गया था।
- इस ख़तरे से छुटकारा पाने के लिए लॉर्ड एम्सहर्स्ट की सरकार ने बर्मा के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।
- लॉर्ड एम्सहर्स्ट की सरकार ने, जिसने युद्ध घोषित किया था, आरम्भ में युद्ध के संचालन में पूर्ण अयोग्यता का प्रदर्शन किया।
- उधर बर्मी सेनापति बंधुल ने युद्ध के संचालन में बड़ी योग्यता तथा रणकौशल का परिचय दिया।
- ब्रिटिश भारतीय सेना ने बर्मा सेना को आसाम से मारकर भगाया तथा रंगून पर चढ़ाई करके उस पर क़ब्ज़ा कर लिया।
- दोनाबू की लड़ाई में बंधुल परास्त हुआ और युद्धभूमि में अचानक रॉकेट आ लगने से वह मारा गया।
- तब अंग्रेज़ों ने दक्षिणी बर्मा की राजधानी ‘प्रोम’ पर क़ब्ज़ा कर बर्मा सरकार को ‘यन्दबू की सन्धि’ (1826 ई.) के लिए मजबूर कर दिया।
- संधि के अंतर्गत बर्मा ने अंग्रेज़ों को एक करोड़ रुपया हर्जाने के रूप में देना स्वीकार किया।
- अराकान और तेनासरीम के सूबे अंग्रेज़ों को सौंप दिये गये और मणिपुर को स्वाधीन राज्य के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई।
- आसाम, कचार और जयन्तिया में हस्तक्षेप न करने का वायदा बर्मा ने किया तथा आवा में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया।
- इसके अलावा बर्मा को एक व्यावसायिक संधि भी करनी पड़ी, जिसके अंतर्गत अंग्रेज़ों को बर्मा में वाणिज्य और व्यावसाय के अनिर्दिष्ट अधिकार प्राप्त हो गये।
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20. आंग्ल-बर्मा युद्ध द्वितीय
- द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध 1852 ई. में लड़ा गया था। यह युद्ध ‘यन्दबू की सन्धि’ के आधार पर राजनीतिक एवं व्यावसायिक माँगों के फलस्वरूप छिड़ा था। लॉर्ड डलहौज़ी ने, जो उस समय ब्रिटिश गवर्नर-जनरल था, बर्मा के शासक पर सन्धि की सभी शर्तें पूरी करने के लिए ज़ोर डाला। बर्मी शासक का कथन था कि अंग्रेज़ सन्धि की शर्तों से कहीं अधिक माँग कर रहे हैं। इस युद्ध में बर्मा की पराजय हुई तथा वह एक स्थलीय राज्य बनकर ही रह गया। अब उसके सभी विदेशी सम्बन्ध सिर्फ़ अंग्रेज़ों की इच्छा पर आश्रित हो गये।
- अपनी माँगों को एक निर्धारित तारीख़ तक पूरा कराने के लिए लॉर्ड डलहौज़ी ने कमोडोर लैम्बर्ट के नेतृत्व में एक जहाज़ी बेड़ा रंगून (अब यांगून) भेज दिया।
- ब्रिटिश नौसेना के अधिकारी की तुनुक-मिज़ाजी के कारण ब्रिटिश फ़्रिगेट और एक बर्मी जहाज़ के बीच गोलाबारी प्रारम्भ हो गई।
- लॉर्ड ऑस्टेन के नेतृत्व में ब्रिटिश नौसेना ने दक्षिणी बर्मा पर आक्रमण करना शुरू कर दिया।
- रंगून, मर्तबान, बसीन, प्रोम और पेंगू पर शीघ्र ही अंग्रेज़ी सेना द्वारा क़ब्ज़ा कर लिया गया।
- लॉर्ड डलहौज़ी, सितम्बर, 1852 ई. में बर्मा पहुँच गया।
- बर्मी राजा उसकी शर्तों को पूरा करने के लिए किसी भी प्रकार राज़ी नहीं था।
- गवर्नर-जनरल की हैसियत से डलहौज़ी ने तत्काल उत्तरी बर्मा तक बढ़ना विवेकपूर्ण नहीं समझा।
- उसने दक्षिणी बर्मा को ब्रिटिश भारत में मिला लिये जाने की घोषणा कर स्वयं अपनी पहल पर युद्ध बंद कर दिया।
- पेंगू अथवा दक्षिणी बर्मा पर क़ब्ज़ा हो जाने से अब बंगाल की खाड़ी के समूचे तट पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण स्थापित हो गया।
21. आंग्ल-बर्मा युद्ध तृतीय
- तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध 38 वर्ष के बाद 1885 ई. में लड़ा गया। उस समय ‘थिबा’ ऊपरी बर्मा का शासक राजा था और ‘मांडले’ उसकी राजधानी थी। उस समय लॉर्ड डफ़रिन भारत का गवर्नर-जनरल था। बर्मी शासक ज़बर्दस्ती दक्षिणी बर्मा छीन लिये जाने से कुपित था। उधर मांडले स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट तथा उसके अधिकारियों को उन मध्ययुगीन शिष्टाचारों को पूरा करने में झुँझलाहट होती थी, जो उन्हें थिबा से मुलाक़ात के समय करनी पड़ती थीं।
- अंग्रेज़ों द्वारा 1852 ई. की पराजय से बर्मा का शासक ‘थिबा’ बुरी तरह चिढ़ा हुआ था।
- उसने फ़्राँसीसियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया।
- उस समय तक फ़्राँसीसियों ने कोचीन, चीन तथा उत्तरी बर्मा के पूर्व में स्थित टेन्किन में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
- फ़्राँसीसियों के साथ बर्मियों के मेलजोल तथा थिबा की सरकार द्वारा एक अंग्रेज़ फ़र्म पर, जो उत्तरी बर्मा में लट्ठे का रोज़गार करती थी, भारी जुर्माना कर देने के कारण भारत की ब्रिटिश सरकार ने 1885 ई. में ‘तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध’ की घोषणा कर दी।
- युद्ध के लिए अंग्रेज़ों ने काफ़ी पहले से ही तैयारियाँ पूरी तरह से कर रखी थी।
- थिबा की फ़्राँसीसियों से सहायता प्राप्त करने की आशा मृग मरीचिका ही सिद्ध हुई।
- युद्ध की घोषणा 9 नवम्बर, 1885 ई. को की गई और बीस दिनों में ही मांडले पर अधिकार कर लिया गया।
- राजा थिबा बंदी बना लिया गया और उसे अपदस्थ करके उत्तरी बर्मा को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।
- दक्षिणी बर्मा को मिलाकर एक नया सूबा बना दिया गया, रंगून (अब यांगून) को उसकी राजधानी बनाया गया।
- इस प्रकार ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य पूर्वोत्तर में अपनी चरम सीमा तक प्रसारित हो गया।
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