रणथम्भौर का चौहान वंश ( Ranthambore Chauhan Vansh )
संस्थापक- गोविंद राज चौहान (पृथ्वीराज का पुत्र)
स्थापना-लगभग 1192
रणथम्भौर राज्य आरंभ से ही दिल्ली सल्तनत का करदाता राज्य रहा है। गोविंदराज चौहान से लेकर जयसिंह तक लगभग सभी शासकों ने दिल्ली सल्तनत को कर दिया किंतु जय सिंह के पुत्र हम्मीर देव चौहान ने यह परंपरा समाप्त की। यही से संघर्ष आरंभ हुआ।
रणथंभौर के चौहानों का इतिहास वास्तविक रुप मे हम्मीर देव चौहान की गौरवमयी कीर्ति से सुशोभित हुआ। हम्मीर देव जयसिंम्हा चौहान का तीसरा पुत्र था। संभवतः सभी पुत्रों में योग्यतम होने के कारण जयसिम्हा ने उसका राज्यारोहण उत्सव 1282 ई.मे अपने जीवनकाल में ही सम्पन्न कर दिया था
हम्मीरदेव चौहान (1282-1301)
हमीर महाकाव्य- जयचंद सूरी
हमीररासो-जोधराज
हमीर हठ-चंद्रशेखर
हम्मीरायण- व्यास भडाऊ
खनाइन-उल-फुतुह-अमीर खुसरो
केसरिया- युद्ध में जीत की संभावना समाप्त होने पर राजपूत योद्धा शत्रु के समक्ष आत्मसमर्पण न कर केसरिया वस्त्र धारण करते थे। तथा वीरगति को प्राप्त होते थे ।
जौहर- उक्त परिस्थितियों में राजपूत महिलाएं अपने सम्मान की रक्षा हेतु अग्नि को समर्पित होती थी।
साका- केसरिया + जौहर
अर्ध साका – दोनों में से एक ही घटना होने पर अर्थ साका कहलाता था।
हम्मीर की दिग्विजय नीति :-
राणा हम्मीर देव चौहान ने दिग्विजय की नीति अपनाई और उसनें समस्त उतर -पशिचम के राजपूत शासकों को जीता।उसनें सर्वप्रथम भीमरस के शासक अर्जुन को परास्त कर धार के शासक भोज परमार को परास्त किया।
तदन्तर वह उतर की ओर चितौड़, आबू वर्धनपुर,पुष्कर,चम्पा होता हुआ स्वदेश लौटा। इस अभियान मे त्रिभुवनगरी के शासक ने उसकी अधीनता स्वीकार की। इस विजय अभियान से लोटने के बाद हम्मीर ने’कोटीयजन'(अशवमेघ जैसाही) का आयोजन किया। जिसका राजपुरोहित ‘विशवरुप’ था।
हम्मीर देव Vs जलालुद्दीन खिलजी
दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने रणथंभौर क्षेत्र पर 2 बार आक्रमण किया
1291- इसमें जलालुद्दीन का रणथंभौर के जाईन क्षेत्र पर अधिकार हुआ तथा इसमें अमीर का सेनापति गुरदास सैनी मारा गया।
1292- इस बार जलाल न रणथंभौर पर आक्रमण किया किंतु असफल होकर उसका कथन था-“एक मुसलमान के बाल की कीमत ऐसे हजारों किलों से कहीं अधिक है।”
हम्मीर Vs अलाउद्दीन खिलजी
दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का रणथंभौर आक्रमण के कारण
1299 अलाउद्दीन के विद्रोही सेनापति महमाशाह को शरण देना।
दिल्ली सल्तनत को नियमित कर न देना।
रणथंभौर दुर्ग का सामरिक महत्व।
अलाउद्दीन खिलजी की साम्राज्यवादी नीति।
अलाउद्दीन रणथंभौर क्षेत्र पर 2 बार आक्रमण किया।
हिन्दुवाट घाटी का युद्ध ( 1299 ) – अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति नुसरत खाँ और उलुख खाँ ने भाग लिया। हम्मीर के सेनापति भीमसिंह और धर्मसिंह ने भाग लिया। इसमें अल्लाउद्दीन का सेनापति नुसरत खां मारा गया तथा उलूग खां जान बचाकर भागा। यह हम्मीर की अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध प्रथम व अंतिम विजय मानी जाती हैं।
स्वयं अलाउद्दीन का रणम्भौर आक्रमण ( 1301 )- इस युद्ध का आंखों देखा विवरण अल्लाउद्दीन के दरबारी अमीर खुसरो ने खजाईन-उल-फुतुह में किया। इसमें हम्मीर के सेनापति रणमल व रत्तिपाल ने विश्वासघात किया।
इसमें हम्मीर का केसरिया व उसकी रानी रंगदेवी का जौहर हुआ। कुछ इतिहासकार इसे जल जौहर भी कहते हैं। यह रणथम्भौर का प्रथम साका कहलाया। वही रणथंभौर की चौहान शाखा समाप्त हुई।
जालौर के चौहान ( Jalore Chauhan )
जालौर दिल्ली से गुजरात व मालवा जाने के मार्ग पर पड़ता था वहां 13 वी सदी मैं सोनगरा चौहानों का शासन था कीर्तिपाल ने 1182 ईस्वी में जालौर के चौहान वंश की स्थापना की, कीर्तिपाल 1182 में प्रतिहारों को हराकर लगभग पूरा जालौर पर अधिपत्य स्थापित किया।
वंशावली
कीर्तिपाल चौहान – 1182 ई
समर सिंह – 1182 – 1205 ई
उदय सिंह – 1205 – 1257 ई
चाचिंग देव – 1257 – 1282 ई
सामंत सिंह- 1282 – 1305 ई
कान्हड देव- 1305 – 1311 ई
जालौर के चौहानों को सोनगरा चौहान कहा जाता है। जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुर था तथा यहां के किले की सुवर्णगिरि / सोनगढ़ कहते हैं जालौर किला स्वर्णगिरि पहाडी पर है, कीर्तिपाल के बाद समरसिंह , उसके बाद उदयसिंह रहा जिसके शासन कल में सीमाओ में विस्तार हुआ।
उदय सिंह
जालोर का शासक बना 1205-1257 ईस्वी तक शासन किया । उदय सिंह सबसे पराक्रमी शासक सिद्ध हुआ जिसने अपने पराक्रम के बल पर जवालीपुर ( वर्त्तमान जालोर) समेत नदुला (वर्त्तमान नाडोल), माण्डवपुर (वर्त्तमान मंडोर), वाग्भट मेरु (जुना मेरु), सुरचंदा, रामसैन्या , सृमाला (वर्त्तमान भीनमाल), सत्यपुर(सांचोर) तक विस्तार किया एवं तुर्क आक्रान्ता इल्तुतमिश का भी सफलता पूर्वक प्रतिरोध किया ।
इल्तुतमिश ने दो-दो बार जालोर पर आक्रमण किया पहली बार उदयसिंह की रणनिति के कारण उसे पराजित होकर वापस लौट जाना पड़ा और दूसरी बार भी उदय सिंह द्वारा गुजरात के बाघेला शासक के साथ सयुक्त मोर्चा बना लेने के कारण इल्तुतमिश बिना यद्ध किये लौटना पड़ा था ।
दिल्ली दरबार को उदयसिंह ने कर देने से इंकार कर दिया, जिसके कारण 1211-1216 ईस्वी चार साल युद्ध चला बिना समझौता किये चौहान राजा उदय सिंह ने दिल्ली सल्तनत के द्वारा मिल रही युद्धरूपी चुनौतियों का सामना किया ।
कान्हड़देव चौहान
कान्हड़दे (1305 – 1311), सामंत सिंह की मृत्यु के बाद जालौर का शासक बना जो कि जालौर के शासकों में सबसे अधिक प्रतापी शासक था।
कान्हड़ देव के बारे में हमें जानकारी पदनाम द्वारा लिखित कान्हड़ दे प्रबंध में मिलती है, तथा फरिश्ता द्वारा लिखित तारीख ए फरिश्ता , और अमीर खुसरो द्वारा लिखित खुदाइन- उल- फुतुह ओर मुहणोत नेणसी द्वारा लिखित मुहणोत नैणसी विख्यात और मकराना के शिलालेख से प्राप्त होती हैं।
अलाउद्दीन खिलजी की पुत्री फिरोजा जो कि विरमदेव (कान्हड़देव का पुत्र) से प्रेम करती थी। (श्रुति)
कान्हड़देव के सेनापति जेता देवड़ा ने गुजरात से लौटते हुए अलाउद्दीन खिलजी की सेना को लूटा था, कान्हड़देव ने सोमनाथ के मंदिर( गुजरात) की मूर्ति के पांच टुकड़ों को पांच मंदिरों में स्थापित करवाया था
अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई जालौर के मार्ग में सिवाना का दुर्ग पड़ता है अलाउद्दीन खिलजी ने कमालुद्दीन गुर्गे के नेतृत्व में 1308 में सिवाना को जीतने के लिए वर्तमान बाड़मेर में सेना भेजी थी सिवाना में घेरे के दौरान कमालुद्दीन का सहायक सेनापति नाहर खां मारा गया था
अलाउद्दीन खिलजी ने 1308 ईसवी में सिवाना दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम खैराबाद रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहां का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया था वीर सातल और सोम वीरगति को प्राप्त हुए
कमालुद्दीन गुर्गे ने सिवाना को जीतने के बाद जालौर दुर्ग को जीतने के लिए 7 दिन तक प्रयास किए किंतु असफल रहा कान्हड़देव की सेना ओर अलाउद्दीन खिलजी की सेना के बीच मालकाना का युद्ध (मेड़ता) 1308 में हुआ जिसमें अलाउद्दीन की सेना पराजित हुई
अलाउद्दीन खिलजी ने 1311 में जालौर को जीतने के लिए कमालुद्दीन गुर्गे के नेतृत्व में सेना भेजी थी बीका देहिया ने कान्हड़देव के साथ विश्वासघात किया था कई दिनों के घेरे के बाद अंतिम युद्ध में अलाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपूत शहीद हुए
वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए
अलाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रंथ काहड़दे ए तथा विरमदेव सोनगरा की बात में मिलती है
मुहणोत नैणसी के अनुसार – कीत्तू एक महान राजा था।
सिरोही के चौहान ( Sirohi Chauhan )
सिरोही के राजा देवड़ा भाखा के चौहान वंश के राजपूत थे। इनके आदि पुरुष लुम्बा ने 1311 ईस्वी के लगभग आबू और चंद्रावती को परमारों से छीन कर वहां अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।
उसके उत्तराधिकारी तेजसिंह, कान्हड़देव, सामंत सिंह लक्खा तथा रायमल थे। चंद्रावती पर लगातार मुस्लिम आक्रमण के कारण रायमल के पुत्र शिभान ने सरणवां पहाड़ों पर एक दुर्ग की स्थापना की। तथा 1405 ई. में शिवपुरी नगर बसाया।
इसके पुत्र साहसमल ने शिवपुरी को स्वास्थ्य की दृष्टि से सही न समझ कर 1425 ई. में सिरोही नगर बसाया। तथा उसे अपनी राजधानी बनाया। इसी के काल में कुंभा ने सिरोही पर अधिकार कर लिया।
1825 ई. में यहाँ के शासक शिवसिंह ने सिरोही की सुरक्षा का भार ईस्ट इंडिया कंपनी पर डाल दिया।
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